कबीर दास जी के दोहे
मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत।प्रेमनगरी है दूर की, अब क्यूं बाँधे...
मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत।प्रेमनगरी है दूर की, अब क्यूं बाँधे...
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ। एकै आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित...