मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत।
प्रेमनगरी है दूर की, अब क्यूं बाँधे छूत॥

कबीर दास जी के इस दोहे का विस्तार से अर्थ समझने का प्रयास करते हैं:

“मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत।”

कबीर दास जी यहां कह रहे हैं कि उन्होंने यह समझ लिया है कि उनका मन अब “मर” चुका है। यहाँ “मन के मरने” का मतलब यह नहीं है कि शरीर समाप्त हो गया, बल्कि इसका अर्थ यह है कि उनके मन की सभी सांसारिक इच्छाएँ, मोह, और अहंकार खत्म हो गए हैं।

जब हमारे मन में किसी भी चीज़ की लालसा, मोह, या अहंकार होता है, तो हम उन चीजों के पीछे भागते हैं, और वे हमें बांधकर रखती हैं। लेकिन जब ये सब इच्छाएँ खत्म हो जाती हैं, तो मन मुक्त हो जाता है। इस स्थिति में, कबीर जी के अनुसार, मन एक भूत की तरह हो जाता है—भूत जो बिना किसी उद्देश्य के भटकता है। यहाँ भूत का अर्थ एक ऐसी अवस्था से है, जहां व्यक्ति का मन अब किसी भी सांसारिक वस्तु से बंधा हुआ नहीं है। वह भूत की तरह निर्लिप्त हो गया है, कोई मोह नहीं, कोई लालसा नहीं।

“प्रेमनगरी है दूर की, अब क्यूं बाँधे छूत॥”

इस पंक्ति में कबीर जी कहते हैं कि अब जब उनका मन सांसारिक इच्छाओं और बंधनों से मुक्त हो चुका है, तो वह ईश्वर की प्राप्ति या सच्चे प्रेम की नगरी की ओर अग्रसर हैं।

“प्रेमनगरी” एक प्रतीक है उस अवस्था का, जहाँ आत्मा ईश्वर के प्रेम में लीन हो जाती है। यह स्थान कोई भौतिक जगह नहीं है, बल्कि यह उस अवस्था का प्रतीक है जहाँ व्यक्ति सच्चे प्रेम, शांति और ईश्वर के समीपता का अनुभव करता है।

कबीर जी यहाँ सवाल उठाते हैं कि जब मन इन बंधनों से मुक्त हो चुका है, तो उसे फिर से उन्हीं बंधनों में क्यों बांधना चाहिए? जब मन एक बार इन सांसारिक इच्छाओं और मोह से ऊपर उठ चुका है, तो उसे फिर से उनमें उलझाने का कोई औचित्य नहीं है।

कबीर दास जी के इस दोहे का संक्षेप में अर्थ है:

“मन की इच्छाओं और मोह का अंत होने पर, आत्मा को ईश्वर के प्रेम की ओर बढ़ना चाहिए, न कि फिर से सांसारिक बंधनों में उलझना चाहिए।”

कबीर दास जी के इस दोहे में “ईश्वर” का अर्थ है “सच्चा प्रेम, शांति, और आध्यात्मिक सत्य का स्रोत”। यह वह अवस्था है जहां आत्मा सांसारिक मोह-माया से मुक्त होकर, पूर्ण शांति और प्रेम में लीन हो जाती है।

श्वर यहाँ कोई भौतिक या व्यक्तिगत रूप नहीं, बल्कि वह अद्वितीय सत्य और प्रेम का प्रतीक है, जो आत्मा के सर्वोच्च लक्ष्य की ओर संकेत करता है। यह वह परम सत्ता है, जिसे पाने के लिए मनुष्य को अपनी सारी इच्छाओं और बंधनों से मुक्त होना पड़ता है।

इसका हिंदी में सारांश शब्द होगा: “इच्छामुक्ति

Explanation in English:

In this Doha, Sant Kabir Das speaks about the transformation of the mind when one starts to walk on the spiritual path. He says that he understands that his mind has died, meaning that his worldly desires, ego, and attachments have ceased to exist. When these elements are eradicated, the mind is no longer alive in the worldly sense—it becomes like a ghost, wandering aimlessly without purpose.

Kabir further says that the city of divine love (Premnagari) is far away, indicating that the ultimate realization of God or true love is still distant and requires effort to reach. If the mind is already “dead” to worldly desires, there is no reason for it to be attached or bound to the material world. The ghost-like mind should not continue to hold on to the remnants of its former attachments.

In essence, Kabir is emphasizing the need to let go of worldly desires and attachments to move closer to the divine, as holding on to them only delays the spiritual journey.

By Pallavi Verma

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